Search This Blog

Sunday, October 5, 2014

तुम्हारे पास वक़्त तो होगा न.....

अनकहे रिश्तों के
बोझ से दबे हम
जब जबरन लाते हैं
शब्द
हमारे बीच
तब घटते शब्दों के दायरे
और उंघते प्रश्नों के सहारे
हम बहलाते हैं खुद को
पर  यकीन मानो
एक दिन
जब ख़ामोशी की पतली डोर
बाँधेगी  हमे
(हमारे रिश्ते न भी बंधे तो भी )
मिलोगी तुम यूँ ही
कभी कहीं रास्ते, बसस्टॉप या मेट्रो में
तो मैं बुद्ध की तरह शांत न रहूँगा
क्योंकि आता है मुझे
गणितीय नियम
रिश्तों का जोड़
विछोह का घटाव
बस कहकहे लगा सुनाऊंगा किस्से
तुम्हारे पास वक़्त तो होगा न।


रंगनाथ रवि


Wednesday, July 10, 2013

बस यूं ही .............

तुम्हारे और मेरे बीच कुछ भी तो ऐसा नहीं की जैसा कारण जौहर दिखाता है अपनी फिल्मों मे या राजेश खन्ना की फिल्में ........... पर यकीन जानो ....... 
अच्छा सुनो वो कल जो काम लिया था पूरा किया ... 
नहीं तो अभी कहाँ हुआ है ...
तो फिर करो न । चलो फिर बाद मे मिलते हैं 
कभी प्यार वाले फिल्मी शब्द न मैंने कहे न तुमने सुने (पूरा करने का मौका ही कब मिला)......................... पर प्यार तो है ही ... 

पीछे कैंटीन मे नयी हिन्दी फिल्म का गाना बज रहा था और मैं उसे जाते हुए देख रहा था ... देख रहा था ।


रंगनाथ रवि

अब सपनों को वो छूती नहीं.....

वो लौट रही थी हॉस्टल से.. 
कागज़ के पुलिन्दों को सहेज कर
रखते हुए, कहा था उसने
सहेज लिया है मैंने यादों को,
सपनों को कार्टून में...
(उम्मीद थी) घर में एक कोना तो
मिल जायेगा इन्हे..

पर अलहड़ को, पता कहाँ
उसके  पीछे घर कितना बदल गया
हर कोने की हद बांध दी गयी है
उसी के हदों की  तरह ही,
बाँट दिए गए हैं हिस्से
और उसके हिस्से कोई कोना नहीं आया..
वो तो आँगन बीच बने
मंडप और वेदी के हिस्से आई है..

सपनो-यादों के कार्टून को
डाल दिया है छज्जे पर
अब सपने सिर्फ दीखते हैं
अब सपनों को वो छूती नहीं.. 

चिन्मय झा 

Tuesday, July 9, 2013

विजय सिंह की कविता

एक कविता कामरेडों के लिये 
------------------------------------
कागज पर ही सही 
मै एक रास्ता बनाता हूँ 
अपनी ही भूख से लड़कर 
प्रतिरोध को रास्ता बनाता हूँ 
तुम ठीक कहते हो कामरेड
विकल्प था मेरे पास 
कि इस मुफलिसी की दुनिया में 
मै भूखा ना रहूँ 
लेकिन मै क्या बताउं.......?
बस यही कि भूखा रहकर 
मै एक भूखे इंसान का नक्शा बनाता हूँ 
ताकि बचा रहे दमन के दिनों में 
लड़ने का सबसे आसान रास्ता !!!!!!!!

विजय सिंह 
कमरा नंबर -१ १ १ 
माही हॉस्टल 
जे . एन .यू

पूरनमासी का चाँद

पूरनमासी की रात 
कल चाँद जो छोटा हो गया 
देखा था क्या तुमने 
बड़ी खबर थी 
२७ लोगों का मर जाना 
मुझे सब साफ़ दिख रहा था 
उसी छोटे से चाँद में 
यह मौत नहीं थी 
प्रतिशोध था 
वो मरते नहीं हैं 
जिसे तुमने मरा बता दिया
तुम्हारे लिए लोकतंत्र की हत्या
उनके लिए
कल एक बेटी बाख गयी
तुमने देखि नहीं होंगी
सलवा-जुडूम की वो स्याह रातें
मरते बच्चों के सामने
माँ का चुप रहना
या फिर नंगी बेटी का
बलात्कार होते देखना
तुम्हारे संविधान में वो इंसान नहीं हैं
उनकी गिनती नहीं होती
उनका इस्पात जब उन्हें देते हो
तब तुम्हे मौत नहीं दिखता
ये उन इस्पातो का हिसाब है
तुमने फिर भेज दिए
अपने हथियार, उनके इस्पात
उन्ही को दागने
पर याद रखना
अगली पूरनमासी को
चाँद छोटा नहीं होगा
स्याह कर लेगा खुद को
कर देगा अमावास
और लील लेगा तुम्हारा लोकतंत्र ...

रंगनाथ रवि

Tuesday, November 9, 2010

चिन्मय झा कि कवितायेँ ( कौमी राजनीती पर करारा व्यंग )

बेतरफा लोग
 कौम से प्यार
पर कौमी नहीं हम

राम की खोई मूंछें
लतीफे भर,
बाबरी दाढ़ी के वास्ते से
नहीं कोई वास्ता हमारा,

हमारी ईदी फेहरिस्त में
मुन्नी-मुन्ने का हक
दीपावली की मिठाइयों पर
उमर-उमराव का ज़ोर 

उनसे कह दो 
'हमारे' लिए 
हमी से लड़ने वालों से.
हम हैं बेतरफा लोग
चाहते नहीं 
राम की मस्जिद 
या अल्लाह का मंदिर
बना दो वहां 
बच्चों का इक इस्कूल
कि
मोहम्मद ओ' मोहन के बच्चे 
साथ बैठ सीख पायें
इंसानियत की रोटी का सच.





साभार :- चिन्मय झा